Samadhan Episode – 933 – Self Confidence – BKSister Usha

CONTENTS

  1. कैसे हम अपने बच्चों को सहजता से अध्यात्म के मार्ग पर ला सकते हैं ?
  2. कलियुग को कौन-सा वरदान प्राप्त है ?
  3. क्या नियति ही सबकुछ है ? पुरुषार्थ करने की क्या आवश्यकता है ?
  4. कैसे अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए हम पॉवर लेकर आयें ?
  5. व्यक्ति के डर का कारण क्या है ?
  6. कैसे अध्यात्म और मैडिटेशन से निर्णय शक्ति बढती है ?
  7. क्या आवागमन से या कर्मों से मुक्त हुआ जा सकता है ?

रुपेश कईवर्त     :          तो क्या दीदी कर्मो पर ही फ़िर आश्रित रहा जाये, कि मेरे पुण्य कर्म जब उदित होंगे, तब मैं इस ओर बढूँगा ! अभी तो मैं.. मुझे यहीं आनंद आ रहा है ! कई लोग ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि ये ज्ञान-ध्यान हमारा काम नहीं है, इसमें हमे मज़ा नहीं आता है, ये हमारे मम्मी-पापा, हमारे दादा-दादी कर लें ! अभी तो ये खेलना-कूदना या ये जो चीज़ें हैं जिनका वर्णन आपने किया था, हमको इससे ही आनंद आता है ! तो क्या कहेंगे फ़िर, उनको वहीं आनंद लेने दिया जाये, या उनका वक़्त आयेगा तबतक इंतज़ार किया जाए, या कुछ और !

बी.के. ऊषा दीदी    :        देखो मैं ऐसा समझती हूँ कि गाइडेंस देना हमारा काम है, स्वीकार करना ना करना उसको हम फ़ोर्स नहीं कर सकते |

क्योंकि जहाँ फ़ोर्स किया जाता है वहाँ व्यक्ति और रिपल्शन (दूर) की ओर जाता जाता है | आपको मैं एक एक्साम्प्ल दूँ कि मानलो एक छोटा बच्चा है, पांच साल का भी हो उसको आप कहो कि, ये सारा कमरा खिलोनों से भरा हुआ है तुम्हे जो मर्जी आए वो खेलो पर ये दरवाज़ा मत खोलना !

रुपेश कईवर्त     :          पहले वहीं जाएगा |

बी.के. ऊषा दीदी    :        उसको उस वक्त एक भी खिलोने में अट्रैक्शन नहीं दिखता है, उसको अट्रैक्शन उसी दरवाज़े से होता है कि क्या है इसमें ?

रुपेश कईवर्त     :          शायद इससे भी बहतर चीज़ वहाँ है !!

बी.के. ऊषा दीदी    :        तो इसीलिए जो है कई बार हम बच्चों को भी जब हम देखते हैं कि इस तरह की.. भले कुछ भी करो जो तुम्हे आनंद देता है लेकिन इस तरफ़ कभी नहीं जाना ! तो देखा जाता है कि वो बच्चे सोचने लगते हैं |

तो अगर अपने बच्चों को अच्छे मार्ग की ओर ले जाना चाहते हैं तो उसे इस तरह कह दिया जाये कि तू जो मर्जी आये कर, लेकिन इस तरफ़ कभी नहीं जाना |

रुपेश कईवर्त     :          ये तो एक अच्छा तरीका हो सकता है !! साइकोलॉजिकल जो तरीका है वो …

बी.के. ऊषा दीदी    :        ये तेरे लिए नहीं है, ये हमारे जैसे लोगों के लिए है इस तरफ़ कभी नहीं जाना ! तो वो बच्चा सबसे पहले उधर ही जाएगा | यहाँ क्यों मना किया जा रहा है वहीं जाएगा और देखा जाता है ऐसे बच्चे कभी-कभी अपने माता-पिता के लिए भी गुरु बन जाते हैं |

ये भी देखा जाता है, उनको जितना मना किया उतना ही और ज़्यादा आकर्षित हुए | और ज़्यादा उसको समझने का…

और फ़िर जब उन्होंने उस चीज़ को रियली एक्सपीरियंस करना शुरू किया तो उनको लगा कि वो कुछ नहीं था ये सब कुछ है |

रुपेश कईवर्त     :          एक शब्द आपने यूज़ किया था.. ये एक अच्छा तरीका अपने मात-पिता को दे दिया है कि इसको चलो ट्राई करें, ताकि बच्चे इस और बढ़ें | कलिकाल का प्रभाव, आपने ये शब्द यूज़ किया था, तो क्या ये स्वीकार कर लिया जाये कि ये कलियुग का प्रभाव है इसलिए ये सारी चीज़ें हमें देखने को मिलेंगी ही, और लोग गलत रास्ते पर जायेंगे ही |

बी.के. ऊषा दीदी    :        हाँ ये तो है, कलिकाल का प्रभाव तो है, लेकिन कलियुग को एक वरदान भी है | वरदान ये है कि जो व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर जाएगा, वो उस शिखर पर भी पहुंचेगा | जैसे स्वामी विवेकानंद को भी हम देखते हैं |

शिखर पर पहुँचा, आज दुनिया में नाम अमर कर दिया | जो उस रसातल में थे, उन्होंने किसी ने नाम अमर नहीं किया |

स्वामी विवेकान्द भी तो साधारण नरेंद्र ही थे ! जब उसका मन इस अध्यात्म की ओर चल पड़ा, और उसका आनंद जब उसने अनुभव करना शुरू किया तब हाइट्स को भी प्राप्त कर लिया | यंगस्टर ही था, दूसरे लडकों की तरह ही था वो भी लेकिन जब इसका आनंद अनुभव किया तो उसके बाद जिस हाइट्स पर पहुँचा.. आज भी.. आज ना होने के बावजूद भी, वे कई लोगों के लिए सोर्स ऑफ़ इंस्पिरेशन हैं | तो इसीलिए कलिकाल का प्रभाव भी है, तो उसको वरदान भी है | और ये वरदान सिर्फ़ कलियुग को है |

रुपेश कईवर्त     :          हाँ, कि यहाँ से शिखर पर पहुँचा जा सकता है | एक बात दीदी, जो आपने विवेकानंद के बारे में कही, ये माना जाता है कि सप्तऋषि में से एक ऋषि थे वो इसीलिए यहाँ का प्रभाव शायद उन्हें प्रभावित ना कर पाया,

उनका मन वैराग्य से भर गया और वो उस ओर बढ़ पाए | तो अगर मेरी नियति भी ऐसी है तो मैं भी ज़रूर यहाँ लिप्त नहीं होऊंगा और ज़रूर उस ओर बढूँगा | एक प्रयास या पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है | तो यहाँ क्या कहें !

बी.के. ऊषा दीदी    :        नहीं नहीं ! पुरुषार्थ क्यों नहीं किया ! विवेकानंद ने भी पुरुषार्थ तो किया ही ना ! भले से ही ऐसा कहते हैं कि वे सप्तऋषि में से एक थे, लेकिन पुरुषार्थ तो उनको भी करना ही पड़ा |

रुपेश कईवर्त     :          लेकिन वो जो एक बात थी, वो जो नियति थी वो उन्हें खींच रही थी | इसीलिए उनके लिए वो सहज हो गया | यदि मेरी नियति नहीं है या मैं वैसा सिद्ध नहीं हूँ तो यदि मैं करना भी चाहूँ तो नहीं कर पाउँगा | ऐसा मानते हैं |

बी.के. ऊषा दीदी    :        ऐसा है कि मैं ये मानती हूँ कि वो सप्तऋषि भी सेल्फ़ क्रिएटेड तो नहीं थे | वो पुरुषार्थ से ही सप्तऋषि बने थे | अगर वो इस दुनिया के अंदर फ़िर से आ भी गए.. इस दुनिया में कलियुग के अंदर आ भी गए तो वापिस उठने का एक मौका समय ज़रूर देता है |

हरेक को देता है | समय हरेक को मौका भी देता है उठने का | जितना उस मौके को पकड़ सकता है उसके ऊपर है | और उस वक़्त उसको एक गाइडेंस मिल जाती है तो अपनी नियति क्रिएट कर लेता है सप्तऋषि की तरह |

सप्तऋषि क्या ! 9 ऋषि भी हो जाऐंगे ! 9 क्या, 108 ऋषि भी हो जाऐंगे | फिगर्स है ये | तो 108 ऋषि भी हो जाऐंगे |

रुपेश कईवर्त     :          मतलब कलियुग को वरदान भी है | आपने एक बहुत सुंदर सी, प्रेरक बात कही है कि यदि हम शिखर पर चढ़ना चाहें तो शिखर की ओर चल सकते हैं | दीदी कई बार बहुत मेहनत करने के बाद भी मैं शिखर की ओर नहीं जा पाता, अध्यात्म के मार्ग पर आगे नहीं पहुँच पाता | या फ़िर लौकिक फील्ड में भी जो है बहुत हार्ड-वर्क करते हैं, लेकिन फ़िर भी वो सफ़लता नहीं मिल पाती है | फ़िर अल्टिमेटली ये बात आ जाती है कि मेरे भाग्य में ही नहीं है |

बी.के. ऊषा दीदी     :         ऐसा है कि कई बार हम ये सोचते हैं कि मैं मेहनत कर रहा हूँ, लेकिन जो द्वार मेरे लिए खुला है उस द्वार को मैं देखते हुए अनदेखा कर रहा हूँ, पर मैं उस तरफ़ आगे बढ़ नहीं रहा | तो यहाँ जो मेहनत कर रहा है  वो वहीं तक ही सीमित हो जाता है | इसलिए जब द्वार खुलता है तो उस ओर आगे बढो ना !

रुपेश कईवर्त     :          मतलब वो द्वार को पहचान नहीं पा रहा है !

बी.के. ऊषा दीदी     :         पहचान नहीं पा रहा है | कहीं ना कहीं हमें रोक रहा है उस द्वार के पास जाने के लिए तो कहीं ना कहीं हमारी ही अपनी कोई कमज़ोरी होती है | मनुष्य जीवन में कोई ना कोई ऐसी कमज़ोरी होती है जो उसकी टांगे खींच लेती है |

रुपेश कईवर्त     :          जैसे..!

बी.के. ऊषा दीदी     :         कहीं ना कहीं आलस्य अलबेलापन भी आ जाता है | कहीं ना कहीं एक संग में व्यक्ति ऐसा फँसा हुआ है और वो संग उसकी कमज़ोरी है | तो वो वहाँ से निकलना नहीं चाहता है, वो समझते हैं कि यही मेरे अपने हैं |

तो कोई ना कोई कमज़ोरी व्यक्ति के जीवन में ऐसी होती है, कहीं आलस्य की, अलबेलेपन की, केयरलेसनेस (लापरवाही) की | कई बार कुछ व्यसन कमज़ोरी बन जाती है | कहीं ना कहीं कोई व्यक्ति कमज़ोर करता रहता है हमें, बार बार वो हमें उस तरफ़ जाने ही नहीं देता है |तो इसीलिए जब कमज़ोरी के वश हो जाता है, तो द्वार को खुला हुआ देख उस ओर आगे बढने की हिम्मत नहीं होती है उसकी | क्योंकि ये लोग खींच रहे हैं |

रुपेश कईवर्त     :          मतलब ये भी एक फैक्टर है जो उसे उस ओर आगे नहीं बढने दे रहा !

बी.के. ऊषा दीदी     :         इसीलिए कहा जाता है कि we have to challenge our own selves. हमें अपनेआप को चुनौती देनी है, कि नहीं.. क्यों नहीं छोड़ सकते हैं शायद हम उनको भी लेकर चलें | और उनको भी लेकर चलके देखो ! अगर उनको अच्छा लगा तो वो भी साथ में चल पड़ेंगे |

रुपेश कईवर्त     :          ये पॉवर कैसे आए दीदी ! कई बार ये जो सारे लोग… जो बुराइयों की आपने बात कही.. थोड़ा सा आलसी हूँ, थोड़ा सा अलबेला हूँ, मेरा संग ऐसा है.. तो ये पॉवर कैसे आए कि मैं इन बुराइयों को दूर कर दूँ और साथियों को भी साथ लेकर चल पडूँ | ये जो अंदर की ताकत है वो कैसे आए ?

बी.के. ऊषा दीदी     :         वो ताकत के लिए तो जैसे कभी कभी जैसे कूद पड़ना होता है..

रुपेश कईवर्त     :          जब कर के ही दिखाऊंगा …

बी.के. ऊषा दीदी     :         जैसे था ना कि एक व्यक्ति को तैरना नहीं आता है, लेकिन वो सागर में कूद पड़ता है..

हाथ पैर मारना शुरू कर देता है | या कई बार हमने सुना है कि किसी को फ़ेक दिया जाये एक स्विमिंग पूल में | हाथ पैर मारना शुरू कर देता है..

रुपेश कईवर्त     :          वैसे सिखाने के लिए ऐसा ही करते हैं उसे फेंक ही दिया जाता है …

बी.के. ऊषा दीदी     :         उसे फेंक ही दिया जाता है | मुझे याद है जब मैं स्विमिंग सीख रही थी, मैं बहुत डर रही थी कि नहीं जाना है.. नहीं जाना है.. पानी में नहीं जाना है ! फ़िर सबने पीछे से आकर ऐसा धक्का दिया कि फ़िर मैंने हाथ पैर मारना शुरू कर दिया |

तो कभी कभी कोई धक्के की आवश्यकता होती है | और जब धक्का मार दिया जाता है तो अपनेआप हाथ पैर मारना शुरू कर देते हैं और वो पॉवर आ जाती है अंदर से | तो कूदना पड़ता है | ज़रुरी नहीं कि मुझे कोई धक्का मारे .. मैं कूद के देखूं उसमें, अच्छा ही है कूदने में .. कोई लोस(नुकसान) नहीं होगा |

रुपेश कईवर्त     :          बहुत सारे लोग बहुत वक़्त लगा देते हैं किनारे पर खड़े होकर सोचने में, कूदुं.. या ना कूदुं.. कूदुं.. या ना कूदुं.. पता नहीं क्या होगा.. कहीं मर-वर तो नहीं गया.. सबकुछ खल्लास तो नहीं हो जाएगा | मतलब ये जो अंदर का डर है,भय है, ये व्यक्ति को दूर कर देता है सफ़लता से, ऐसा लगता है | तो ऐसा साहस कैसे आएगा कि बस कूद ही जाना है !

बी.के. ऊषा दीदी     :         देखो ये डर ऐसी चीज़ है.. और ये डर क्यों है ! क्योंकि कहीं ना कहीं व्यक्ति अपना अहम पालने में लगा हुआ है | इसलिए, डर उसके अंदर है | इसलिए एक कहावत भी है, फियर ऑफ़ बीइंग हर्ट | अगर मैं कूदा.. और मैंने अपनेआप को ज़ख्म दिया तो !

फ़ीलिंग ऑफ़ बीइंग हर्ट, हू इज़ गोइंग टू बी हर्ट ! जब भी कोई भय किसी व्यक्ति के अंदर आया वो भय उसके अहम को लगता है | व्यक्ति को भय नहीं लगता, उसके अहम को भय लगता है कि अगर मैं नहीं कर पाया उसके बाद लोगों ने critisize करना शुरू कर दिया तो क्या !

और उस critisism को मैं फेस कर पाऊँगा ! वहाँ वो किनारे पर रह जाते हैं | और जहाँ वो कूदेंगे वहाँ थोड़ी बहुत शुरू में बातचीत होगी भी, बातचीत कहाँ नहीं होती है ! सफ़ल व्यक्ति जब जैसे-जैसे सफ़लता की ओर बढ़ता है, वहाँ भी लोगों ने टांग खींचना शुरू कर दिया है, बातें वहाँ भी होती है..

रुपेश कईवर्त     :          कुछ तो लोग कहेंगे …

बी.के. ऊषा दीदी     :         कुछ तो लोग कहेंगे | तो इसीलिए अगर मुझे ये डर रहा, तबतो मैं कहीं भी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकूंगी | तो इसीलिए we need to  चैलेंज ourselves | आगे बढने के लिए.. लोगों की बातों को अभी छोड़ो..! लोग तो कहेंगे,

लोगों की बातों को अभी छोड़ो | जब लोगों की बातों को छोड़ेंगे तब मुझे क्या अच्छा लगता है.. मुझे क्या करना है ! ये मैं अपने लिए फाइनल करूं लक्ष्य | कि मुझे किस तरफ़ जाना है, मेरा मन क्या कह रहा है उस ओर मैं जाऊँ |

रुपेश कईवर्त     :          कई बार यहाँ पर भी एक डाइलेमा की की स्थिति रहती है दीदी कि ये करूं.. या ये करूं.. कई मेरे पास ऑप्शन हो जाते हैं वहाँ पर भी व्यक्ति निर्णय लेने में देर कर देता है | एक आपने ईगो की बात कही कि चलिए लोग क्या कहेंगे ये वाला फैक्टर.. लेकिन यहाँ एक मेरे ऊपर ही होता है और मैं चयन नहीं कर पा रहा होता हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए |

क्या यहाँ कुछ अध्यात्म और मैडिटेशन की मदद हो सकती है कि मैं कुछ चयन करूं, सही चयन करूं | मेरे निर्णय सही सही हों, बिलकुल सही हों |

बी.के. ऊषा दीदी     :         ऐसा है कि मैडिटेशन से क्या होगा कि हमारा फोकस क्लियर हो जाता है | और जब अंदर का फोकस क्लियर है, तो जो ऑप्शन मेरे सामने क्लियर हैं, तो उसके लिए एक क्लियर चॉइस मैं अपने लिए choose कर सकती हूँ |

हर चॉइस, हर ऑप्शन को मैं देखती हूँ, हर ऑप्शन के प्रोस एंड कोंस को देखती हूँ, और उनको देखते हुए फ़िर मैं चॉइस करूं कि राईट क्या है मेरे लिए ! और फ़िर मैं आगे बढूँ | चॉइस तो मेरा अपना होगा | जो चॉइस मैं करूंगी, तो उसके लिए मैं खुद जिम्मेदारी से उसको challenge करने में भी सक्षम हो जाऊँगी | लेकिन जिस समय ऐसे तीन-चार ऑप्शन व्यक्ति के जीवन में आते हैं, तो उस समय वो खुद चॉइस करने के बजाय दूसरों पर आधारित हो जाता है..

आप क्या समझते हैं मेरे लिए क्या सही चॉइस है ! और वो व्यक्ति शायद आपकी पर्सनालिटी की एक साइड जानते हैं | वो बहुत फ्रेंडली हैं उनके साथ तो एक साइड जानते हैं, दूसरी साइड नहीं भी जानते हैं | लेकिन आप स्वयं को दोनों तरफ़ से जानते हैं | और इसीलिए शायद वो रोंग चॉइस भी आपको बता देगा | लेकिन आप अपने आपको बहुत अच्छे से जानते हो,

तो इसीलिए मैं चॉइस करती हूँ तो मैं जिम्मेवार हो जाती हूँ | और उसको पूरा करूंगी | और अगर कोई दूसरा मुझे चॉइस देता है … कि भई तेरे लिए तो यही बराबर है, और उसके कहने पर मैं गई हूँ, तो जब भी जीवन में कुछ होगा क्योंकि लिमिटेशन तो कहाँ ना कहाँ आएंगी ही..

रुपेश कईवर्त     :          तो हम उसको दोष देंगे | लेकिन कई बार ये भी कहा जाता है दीदी कि आप लोगों से राय-मशोहरा कर के, अपने बड़े-बुज़ुर्गों से पूछकर निर्णय लो.. तो ये बात भी तो कही जाती है ना !

बी.के. ऊषा दीदी     :         बिलकुल ! लोगों से मशोहरा ज़रूर करो लेकिन चॉइस आपका खुदका होना चाहिए | फाइनल डिसिशन आपका होना चाहिए | क्योंकि आप अपनेआपको बहुत अच्छे से जानते हो | इसीलिए बड़े-बुज़ुर्गों को भी पूछो, अपने साथियों को भी पूछो क्योंकि हरेक जो है अलग फेसेस को जानते हैं | आपके जो घर के बड़े-बुज़ुर्ग हैं वे आपको अलग तरह से जानते हैं, उन्होंने आपको बचपन से ग्रो (बड़े) होते देखा है |

वे कहीं ना कहीं आपकी लिमिटेशन को भी जानते हैं, कुछ हद तक | आपके फ्रेंडस एक अलग साइड को जानते हैं| तो मशोहरा आप ज़रूर करो, पर चॉइस आपका खुदका होना चाहिए | ताकि आप किसीको दोषी ना बनाएं| क्योंकि जहाँ हमने दोष डाला, हम हिम्मत हारने लगेंगे | और फ़िर उसके प्रति भी हमारी भावना चेंज हो जाएँगी |

तो ऐसा हम क्यों करें ! तो लोग आपको अलग-अलग तरीके से, अलग-अलग साइड से जानते हैं, आपकी पर्सनालिटी को समझते हैं | आप सम्पूर्ण अपनेआपको जानते हो | दोनों तरफ़ से जानते हो | आपकी कमज़ोरी कहाँ है वो भी आप जानते हो,इसीलिए वो आपको बता रहा है लेकिन आपके अंदर में है कि.. नहीं मेरी ये कमज़ोरी शायद मेरे लिए बहुत बड़ी challenge बनेगी | आप इस ऑप्शन को ले रहे हैं | तो आप जो चॉइस लेंगे वो राईट लेंगे |

रुपेश कईवर्त     :          इसीलिए खुद ही सारा जो भी अपना बड़ा कार्य है, निर्णय है.. खुद ही लिया जाए | दीदी, हम पुनः कर्मों की उस चर्चा पर आएं, यद्यपि काफ़ी गहन बातें हमारी हो रही हैं | शाश्त्रों में दो प्रकार के मार्ग बता दिए गए हैं,

सांख्य मार्ग और योग मार्ग | और सांख्य मार्ग में पूरी तरह से कर्ममुक्त रहा जाए, कोई कर्म ना किया जाए,इस बात पर जोर दिया जाता है | क्या संसार में रहते हुए ये सम्भव है कि व्यक्ति कोई कर्म ही ना करे और मोक्ष की प्राप्ति कर ले !

बी.के. ऊषा दीदी     :         ऐसा तो कभी नहीं हो सकता, गीता में भी इसीलिए सांख्य मार्ग बताया है लेकिन ज्ञान मार्ग में जैसे आत्मा का ज्ञान है, सम्पूर्ण दिया हुआ है लेकिन उसमे भी ये बात कही है कि कर्म अनिवार्य है | ये भी नहीं कि ज्ञानियों को.. जो सांख्य है..

सांख्य माना ज्ञान, समझ.. जो ज्ञानी है उसको कर्म नहीं करना पड़ता है, तो ज्ञानियों को भी कर्म करना पड़ता है, योगियों को भी कर्म करना पड़ता है | कर्म अनिवार्य है | कुछ निजी कार्य हैं जो करना ही पड़ता है, तो कर्म अनिवार्य है, कर्म के बिना हम नहीं रह सकते हैं |

रुपेश कईवर्त     :          तो ये जो एक मान्यता है कि मैं आवागमन से मुक्त हो जाऊ, और मैं कर्म करूँ ही ना जिसका मुझे फ़ल मिले | मैं ऐसा पुण्य कर्म भी ना करूं जिससे मुझे सुख मिले ना ऐसा पाप कर्म करूं जिससे मुझे दुःख मिले, मैं आवागमन से मुक्त हो जाऊ | ये भी एक मान्यता लेकर एक वर्ग तो चलता ही है |

बी.के. ऊषा दीदी     :         ऐसा है कि आवागमन से मुक्त कितना होना चाहते हैं ! मैं यही प्रश्न पूछती हूँ कि कितने चाहते हैं आवागमन से मुक्त होना | चाहते हैं तो उसके पहले ये एक भ्रम है वो दूर करना बहुत ज़रुरी हो जाता है | कि आज अगर मैं एक example दूँ आपको, मानलो कि एक बड़ी बिल्डिंग है और उस बिल्डिंग के नीचे एक प्लेग्राउंड है, उस बिल्डिंग में पचास फ्लैट्स हैं |

और मानलो आप भी एक फ्लैट में रह रहे हैं | और आपका बच्चा है, वेकेशन का टाइम है सारे बच्चे बिल्डिंग के उस प्लेग्राउंड में खेल रहे हैं | आपका बच्चा है वो भी कहता है कि मुझे नीचे जाना है खेलने के लिए | आप उसको क्या कहोगे … मुझे तुमसे बहुत प्यार है,

बहुत लगाव है और मैं चाहता हूँ तुम ऊपर ही खेलो ! इतने कंप्यूटर गेम्स हैं इतने मोबाइल गेम्स हैं तेरे पास, तुझे मैं छुट्टी देता हूँ, जितना चाहे उतना गेम खेल ! लेकिन तुम ऊपर ही रहो, नीचे नहीं जाना है | नीचे जो खेल है ना वो हार-जीत का है |

दो पार्टियाँ हैं, हार-जीत का खेल है | एक जीतेगा दूसरा हारेगा | अगर तू हार गया ना.. तो ना तुझसे सहन होगा ना मुझसे सहन होगा ! इसलिए तुम नीचे नहीं जाओ | क्या उस समय वो बच्चा मान जाएगा !

रुपेश कईवर्त     :          मुश्किल से.. यदि माना भी तो !

बी.के. ऊषा दीदी     :         नहीं मानेगा.. उसके सारे साथी नीचे हैं |

रुपेश कईवर्त     :          तबतो भाग ही जाएगा …

बी.के. ऊषा दीदी     :         भाग ही जाएगा | वो कहेगा, मुझे कोई कंप्यूटर गेम नहीं खेलनी है, कोई मोबाइल गेम नहीं खेलनी है.. इस वक्त मुझे एक lively खेल खेलना है | क्योंकि हर इन्सान जो है वो lively चाहता है, रहना चाहता है |

जब कोई नहीं है तब वो मोबाइल से बहुत अच्छे से घंटो बैठकर खेलेगा, लेकिन जब सारे लोग हैं तो उस समय वो वहीं जाना चाहेगा, वो attracted है | उसको आप समझाओ कि ये जो गेम है ना बड़ा रफ़ गेम है, मानलो तुझे किसीने धक्का दे दिया, चोट पहुँच गई तुझे, फ़िर क्या करेगा ! तो बोलेगा कोई बात नहीं.. जाना ही है | नीचे गया | खेल में इन्वोल्व हुआ, सारा दिन खेला |

जैसे जैसे शाम होने लगी, उस में कुछ पॉलिटिक्स घुस गई.. चीटिंग घुस गई, कुछ लोगों ने चीटिंग शुरू कर दी  और शुरू में तो बहुत अच्छा खेल चला था, पर जैसे ही ये दूसरी भावना अंदर से जागृत हो गईं, और किसीने देखा कि आपका बच्चा जीत रहा है और ज़ोर से धक्का मार दिया, गिरा दिया, चोट लग गई और वो हार गया | लास्ट था हार गया |

हार गया, अब वो रोना शुरू करेगा | किसीने आकर बताया उसके मम्मी-डैडी को कि आपका बच्चा रो रहा है | जाएँगे, लेकिन माँ-बाप को पता है कि जबतक सब खेल रहे हैं ये ऊपर आने वाला नहीं है चोट लगने के बावजूद भी | क्या कहेंगे !

सबने बहुत खेला अब जाओ सब … ! अब सब अपने अपने घर जा रहे हैं | जैसे ही कहा कि सब अपने अपने घर जाओ, जाते हैं सब.. तब खुदका भी बच्चा ऊपर आता है | साफ़ स्वच्छ किया उसको, मल्लम-पट्टी लगाई उसको जहाँ चोट आई थी |

खाना पीना दिया वो सो गया | जैसे ही दूसरे दिन वो गेम शुरू होगा, वो जाएगा या नहीं जाएगा ! वो जाएगा | ठीक इसी तरह हमारे पिता ने भी हमें कहा कि ऊपर बेठे रहो.. नीचे क्या करना है अवागमन में जाकर के !

यहाँ इतनी शांति है, मेरा प्यार है.. मेरे बाजु में.. मुझे इतना लगाव है तुमसे, तुम ऊपर बेठो ! हमने भी देखा कि सारे मेरे दोस्त तो नीचे जा रहे हैं |

रुपेश कईवर्त     :          हम भी ज़बरदस्ती आ गए.. हमें भी खेलना है |

बी.के. ऊषा दीदी     :         हमें खेलना है ना …

रुपेश कईवर्त     :          हम थक गए हैं, हार गए हैं इसीलिए शायद ये इच्छा पैदा होती है ..

बी.के. ऊषा दीदी     :         इसीलिए ये इच्छा पैदा होती है | जो रोना शुरू किया तो रोना मतलब क्या ! कि now i want to be free, अब मुझे घर जाना है | अब हर इन्सान भी रो रहा है.. हे प्रभु.. इससे तो मोक्ष मिल जाए तो अच्छा है ! आवागमन से छूट जाएँ तो अच्छा है क्योंकि ये प्रोस एंड कोंस (फ़ायदा और नुकसान) भी देख लिए हमने, फ़ायदे और नुकसान भी देख लिए हमने | कि कितनी चीटिंग होती है कलियुग में | इसीलिए रोना शुरू किया |

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